छठवां वचन - पूरा हुआ !

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यीशु ने मरते समय जो वचन, जिस प्रकार कहा, वह योजना के अनुसार है। हर वचन अपने में एक अलग पहचान, अलग गंभीरता, अलग रहस्य लिये हुये है । और किसी ईश्वर की मृत्यु के समय कही गई बातों में वह संदेश नहीं मिलता जो इन सात वचनों में मिलता है। यद्यपि हर वर्ष दुख भोग सप्ताह में लोग इस पर अपने विचार प्रस्तुत करते हैं पर हर वर्ष जब भी मैं इनका अध् ययन करता हूँ इसमें नया संदेश मिलता है। सुसमाचार लेखकों ने भी पवित्र आत्मा की अगुवाई में इन विशेष वचनों तथा घटनाओं को अनोखे ढंग से प्रस्तुत किया है !

"जब यीशु ने वह सिरका लिया, तो कहा “पूरा हुआ" और सिर झुका कर प्राण त्याग दिये।”

यहां पर हम शब्द सुनते हैं तथा एक कार्य होते देखते हैं।

★उसने कहा

जो भी उसने कहा जयजयकार के साथ विजयी स्वर से कहा। इन दो शब्दों को जब हम देखते हैं तो यीशु के संपूर्ण जीवन-कार्य का सजीव चित्र हमारे सामने आ जाता है । इन दो शब्दों के कहने में यीशु ने अपने जीवन के कई बातों को पूरा

करके दिखा दिया ।

• सताने वालों का क्रोध व नफरत भरी दुश्मनी पूरी हो गई। जब सिपाहियों ने उसकी निन्दा के लिये स्पंज में सिरका दिया...उसके मन ने ये कहा होगा" बस ये अंतिम घूंट हैं, मैं अब तुम्हारी पकड़ से बाहर जा रहा हूँ.. तुम्हारे सताव का अंत है, तुम्हें जो करने को कहा था, तुमने पूरा कर लिया।" तुम्हारा सताना पूरा हो गया, मुझे जो करना था वो भी पूरा हो गया।

• मेरे पिता ने मुझे दुख उठाने की जो आज्ञा दी थी, मैंने पूर्ण धीरज के साथ उस दुख को पूरी तरह सह लिया, कहीं भी प्रतिरोध नहीं किया। जो मैने प्रभु की प्रार्थना में कहा था "तेरी इच्छा पूरी हों" वो पूरी हो गई।

"मेरा भोजन यह है कि अपने भेजने वाले की इच्छानुसार चलूं और उसका काम पूरा करूं।" (यूहन्ना 4:34)

• सृष्टि के आरंभ में पतन के बाद हुई समस्त भविष्यवाणियां जो मसीह के दुख को प्रस्तुत करती थीं, सब इन शब्दों में पूर्ण हो गई। पुराने नियम का और कोई शब्द बाकि नहीं रहा। तीस चांदी के सिक्कों में बेचा जाना, हाथ पांव का बांधा जाना, कुरते का बांटा जाना आदि इस समय सब कुछ पूरा हो गया। हजारो बरसों से शुरू हुई योजना पर आधारित सारी बातें पूरी हो गई। ये परमेश्वर के रहस्य को प्रस्तुत करता है। पूरे संसार की घटनाओं को पहले बताना. ....फिर समय को योजनानुसार चलाते हुये यीशु के साढ़े 33 वर्षो के जीवन में सब कुछ पूरा कर देना एक बहुत ही अनोखी बात है जो मानव-बुद्धि के समझ से बाहर है। बाइबल कहती है मनुष्य की उम्र 70 साल की होती है । परन्तु यीशु ने  साढ़े 33 साल के अंदर भविष्यवाणियों को जिस तरह पूर्ण कर दिया, यह परमेश्वर ही कर सकता है । यह उसका काम है ।

● इस शब्द में हम व्यवस्था को मिटते देखते हैं। तथा वह समय भी पूरा हो गया जिस समय तक उसे व्यवस्था को पूरा करना था। यह बात भी अनोखी है कि परमेश्वर ने एक समय तक पुरानी व्यवस्था द्वारा इस्राएल को चलाया, फिर यीशु मसीह की मृत्यु द्वारा एक नई व्यवस्था, एक नये काल को प्रारंभ कर दिया। पुरानी व्यवस्था पूरी हो गई .....उसकी आवश्यकता नहीं, परदा ऊपर से नीचे फट गया, नई व्यवस्था का स्वागत किया गया।

"क्योंकि वही हमारा मेल है जिसने दोनो को एक कर लिया और अलग करने वाली दीवार को जो बीच में थी ढा दिया। और अपने शरीर में बैर अर्थात् वह व्यवस्था जिसकी आज्ञायें विधियों की रीति पर थी मिटा दिया, कि दोनों से अपने में एक नया मनुष्य उत्पन्न करके मेल करा दे।" (इफिसियों 2:14, 15) उसने मूसा की व्यवस्था को मिटाकर एक नई आशा का मार्ग दिखा दिया ।

● पाप समाप्त किया गया। बलिदानों का अंत कर पाप को समाप्त करने के लिये यीशु ने अपनी मृत्यु में एक ही बार में हमेशा के लिये मिटा दिया। कभी अंत न होने वाली ध आर्मिकता ने, परमेश्वर के मेमने के बलिदान के माध्यम से पाप को संसार से कहीं बहुत दूर कर दिया ।

"यह नहीं कि वह अपने आपको बार-बार चढ़ाये, जैसा कि महायाजक प्रतिवर्ष दूसरे का लोहू लिये पवित्र स्थान में पवित्र किया करता है। नहीं तो जगत की उत्पत्ति से लेकर उसको बार-बार दुख उठाना पड़ता, पर अब युग के अन्त में वह एक बार प्रकट हुआ है ताकि अपने ही बलिदान के द्वारा पाप को दूर कर दे।" (इब्रानियो 9:25-26)

● इस मृत्यु ने उसके दुखों का हमेशा के लिये अंत कर दिया, चाहे व शारीरिक दुख था या आत्मा की पीड़ा थी । तूफान समाप्त हो गया, जो बुरा हुआ वह बीती बात हो गई। उसके सारे दर्द तथा वेदना का अंत हो गया। ऐसा होना दुख की बात नहीं परन्तु यहीं से स्वर्ग में प्रवेश करने का हमेशा के आनन्द का अनुभव प्रारंभ हो गया। यह संदेश उनके लिये भी है जो प्रभु यीशु के लिये दुख उठा रहे हैं, सताये जा रहे हैं, छलनी किये जा रहे हैं... वे भी यीशु के समान कहेंगे "पूरा हुआ" और स्वर्ग के अनन्त आनन्द में प्रवेश कर जायेंगे

यीशु के "पूरा हुआ" शब्द में दुख उठाने वालो के लिये तसल्ली है, आराम है।

यह एक निर्धारित समय है जो अवश्य पूरा होगा तथा वहीं से स्वर्ग-प्रवेश का आनन्द प्रारंभ हो जायेगा।

• पार्थिव जीवन का अंत हो गया। जो जीवन का समय पृथ्वी पर उसे दिया गया था उसे उसने पूरा कर लिया...वह अब संसार का नहीं है। जहां से वह आया था वहीं वह वापस जा रहा है।

“मैं आगे को जगत में न रहूंगा, परन्तु वे जगत में रहेंगे, और मैं तेरे पास आता हूं, हे पवित्र पिता, अपने उस नाम से जो तूने मुझे दिया है, उनकी रक्षा कर कि वे हमारी नाई एक हों।”

• सबसे मुख्य बात यह है, मनुष्य के छुटकारे का कार्य तथा उद्धार का कार्य पूरा हुआ। यही था मसीह के पृथ्वी पर आने का उद्देश्य। इसके साथ-साथ जो कुछ भी मसीह ने किया और उसके साथ हुआ, उन सब छोटी-बड़ी बातों का संबध मसीह के उद्धार की योजना से ही था। परमेश्वर इस कार्य के बाद ही पूर्णतः संतुष्ट हुआ होगा...इस जीवित बलिदान के द्वारा ही समस्त मानव जाति के साथ न्याय का कार्य पूरा हुआ.... इस बलिदान से शैतान की पूरी सामर्थ टकरा के चूर चूर हो गई। हमेशा के लिए अनुग्रह का द्वार खुल गया तथा शांति व आनंद की कभी न टलने वाली नींव डाल दी गई। मसीह ने यह महान कार्य पूरा कर दिया।

"जो काम तूने मुझे करने को दिया था उसे पूरा करके मैने पृथ्वी पर तेरी महिमा की है।" (यूहन्ना 17:4)

जो कार्य परमेश्वर प्रारंभ करता है, उसे वह अवश्य पूरा करता है।

★ उसने किया

"और सिर झुका कर प्राण त्याग दिये।”

वह स्वयं सेवी के रूप में मर रहा था, क्योंकि वह न केवल बलिदान था पर याजक भी था, भेंट चढ़ाने वाला भी था। तथा भेंट चढ़ाने वाले का मन केवल बलिदान ही में होता है। परमेश्वर की इच्छा उसके दुख उठाने में थी। जिसके द्वारा हम शुद्ध किये गये।

यीशु के अनोखे चरित्र को हम यहां देखते हैं। पिता के द्वारा उसे दुख उठाने के लिये भेजा गया था। दुख उठाने की इच्छा रखना, तथा प्राण देने तक विश्वासी रहना सच्चे प्रेम के कारण ही संभव है।

"इससे बड़ा प्रेम किसी का नहीं कि कोई अपने मित्र के लिये अपना प्राण दे।” यह यीशु की निःस्वार्थ प्रेम सेवा थी। हममें से कई, कई लोगों को बहुत कुछ दे सकते हैं। लेकिन कोई किसी के लिये प्राण नहीं देता। यहां पर यीशु ने सबसे बड़ी चीज

"प्राण" दे दिया। यह कार्य और किसी ने नहीं किया जिसे परमेश्वर ने अपने बेटे के द्वारा किया। बिना इस कार्य के परमेश्वर अपनी योजना पूरी कर ही नहीं सकता ।

आज्ञाकारिता के साथ, यह कार्य करना ही यीशु को इस लायक बनाया। यदि आज्ञा पहले स्थान पर होती है तो इसके लिये चाहे कितनी भी कीमत चुकानी पड़े, उसके लिये कोई बात भी हमें नहीं रोक सकती। यीशु ने पिता की आज्ञा को पहले स्थान पर रखा इसलिये प्राण देने से भी उसने अपने आपको नहीं रोका। आज्ञाकारिता के लिये मूल्य चुकाना पड़ता है और यीशु ने अपना प्राण देके मूल्य चुका दिया ।

★ स्वेच्छा से उसने प्राण दिया ।

परमेश्वर के पुत्र को मारने तथा छीनने की क्षमता सारे विश्व की सामर्थ में भी नहीं है। कैसे विश्वास करें जिसके पास मृत्यु, बीमारी, तूफान सब को संचालित करने की ईश्वरीय ताकत है उसे रोमी सरकार या यहूदी व्यवस्था मार सकती थी ।

उसका जीवन किसी ने बलपूर्वक नहीं ले लिया परन्तु उसने स्वेच्छा से स्वयं को दे दिया था। उसके देने में कई विशेष बातें थीं ।

'हे पिता मैं अपनी आत्मा तेरे हाथों में सौंपता हूं।' उसने घोषणा करके अपने आपको पिता के हाथ में सौंपा। शत्रुओं के पास बस उसका मृत शरीर था पर आत्मा पिता के हाथ में थी ।

•उसने अपना प्राण सारे संसार के पापियों को छुड़ाने के लिये दिया । प्राण देने का विशेष अभिप्राय था । उसका सारा जीवन पापियों के बीच में रहा और उन्हीं के लिये उसने प्राण भी दिया। यहूदी व्यवस्था के अनुसार पापियों को बलिदान करना पड़ता था ताकि उनके पाप क्षमा किये जायें और यह काम उसने स्वयं का बलिदान करके किया।

ऐसा करके यीशु ने पिता की महिमा की। महिमा करना यीशु का जीवन का प्रमुख कार्य था। प्राण देकर उसने महिमा करने की सबसे अंतिम सीमा को छू लिया

★सर झुका कर

क्रूस पर चढ़ाये गये व्यक्तियों की अलग-अलग स्थितियों में देह की अलग-अलग मुद्रायें होती थीं। जब उनके प्राण जाने वाले होते थे वे पूरी शक्ति लगाकर सर ऊपर करके, देह को खींचकर अंतिम सांस लेने का प्रयास करते थे और जब तक उनके प्राण नहीं चले जाते सर नहीं लटकता था। परन्तु यीशु की मृत्यु एक अलग ही बात थी । वह सक्रिय होके मर रहा था, पहले उसने अपना सर झुकाया, मानो वह सोने जा रहा है।

परमेश्वर ने सब अधर्मों का बोझ उस पर डाल दिया। इस महान बलिदान के माथे पर समस्त पापों का प्रतिनिधित्व था।

"क्योंकि मेरे अधर्म के कार्यो में मेरा सिर डूब गया, और वे भारी बोझ की नाई मेरे सहने से बाहर हो गये हैं।" (भजन सहिता 38:4)

"मेरे अधर्म के कामों ने मुझे आ पकड़ा, और मैं दृष्टि नहीं उठा सकता।" (भजन सहिता 40:12)

उसका सिर झुकना पिता की इच्छा के प्रति समर्पण को दिखाता है। यह मृत्यु तक आज्ञाकारी होने का प्रमाण है। उसने सोचते समझते हुए प्राण दिया ।

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