पांचवा वचन - मैं प्यासा हूँ !

Krush Wani | Yishu Ki Saat Wachan | पांचवा वचन - मैं प्यासा हूँ

जब मैं इस वचन को पढ़ता हूं तो मेरे मन में कई सवाल उठते हैं। हम पवित्र शास्त्र में देखते हैं कि यीशु मानव बनकर, मानव जाति की कई आवश्यकताओं को पूरा करने आया था। और बार-बार उसे देते हुये देखते हैं भूखों को खाना खिलाते, प्यासों को पानी पिलाते, रोगियों को चंगाई करते, मृतकों को जीवन देते हुए देखते हैं। क्रूस पर अपराधियों को क्षमा देते, डाकू को स्वर्ग में जगह देते, मां को बेटा देते हुए देखते हैं.... फिर ऐसी क्या स्थिति थी जिससे यीशु को अपनी मांग को, मांगने वालों के सामने रखना पड़ा। और जब मांगा और उसके मांगने के उत्तर में जो भी दिया गया वह वचन के अनुसार ही था ।

प्यास में शास्त्र का पूरा होना

'इसके बाद यीशु ने यह जानकर कि अब सब हो चुका, इसलिये कि पवित्र शास्त्र की बात पूरी हो कहा, मैं प्यासा हूँ ।

उसने अपनी प्यास को वहां जो सिपाही थे, उनके सामने व्यक्त किया। सबसे पहले यीशु ने उनके लिये क्षमा की प्रार्थना की थी। अब उसने कुछ पीने को मांगा। यहां कोई विशेष पीने की चीज का नाम नहीं आया है।

यीशु के इस वचन में हम देखते हैं कि यीशु के साथ पिछले दिनो से जो कुछ घट रहा था, उसमें प्यास लगना प्राकृतिक बात थी। वह पहले भी प्यासा रहा है। यूहन्ना 4 में हम देखते हैं कि वहां सामरी स्त्री से वह पानी मांगता है और वहां जो पानी देने वाली थी, उसका जीवन बच जाता है (यूहन्ना 4) यहां हम दूसरी स्थिति देखते हैं वह अनेक यातनाओं में से गुजरा है। शारीरिक ताड़ना जो उसे दी गई उसकी कोई सीमा नहीं थी... न उसके घावों का इलाज हुआ, ना उसका खून पोछा गया, न उसे पानी दिया गया, न खाने को कुछ उसे मिला... पूरी प्रक्रिया में हम कहीं भी उसे अपनी पीड़ा को प्रकट करते, चिल्लाते, प्रतिशोध करते, कुछ मांगते नहीं देखते हैं।

यहां उसका बहुत खून बह चुका है,वह मृत्यु के बहुत निकट पहुंच चुका है। यदि यूहन्ना का सुसमाचार नहीं लिखा जाता तो हम यह नहीं जानते कि यीशु ने कहा था कि "मैं प्यासा क्योंकि अन्य सुसमाचारों में हमें इसका वर्णन नहीं मिलता।

सिपाहियों के लिये उसके इस वचन का कुछ और मतलब था। उन्होंने उसका प्राकृतिक अर्थ लिया!

कई प्रचारक इस प्यास के विषय कई प्रकार के विचार प्रस्तुत करते हैं लेकिन मुख्य बात ये है कि यीशु इस बात को मृत्यु के समय स्मरण कर रहा है कि उसे ये वचन कहना है क्योंकि इस वचन को कहने के विषय में शास्त्र में लिखा जा चुका है तथा इसे यीशु को जीवन रहते हुये बोलना था!

शिकायतः मैं प्यासा प्यासा हूँ

यही एक वचन है, जो यीशु अपनी पीड़ा को प्रस्तुत करने के, लिये सिपाहियों से कहता है। जब उसे कोड़ों से पीटा गया, थप्पड़ मारा गया, कांटों का मुकुट सर पर मढ़ा गया.. उसने कोई आवाज नहीं निकाली न चीखा, ना चिल्लाया । पर अब उसने कहा, "मैं प्यासा हूँ।" सबसे पहले उसे शत्रुओं के अपराध की चिंता हुई, फिर डाकू की प्रार्थना सुनी, उसका प्रबंध किया, फिर मां पर उसने दृष्टि की, फिर उसके बाद उसे अपना स्मरण आया !

० सारे जीवन में उसकी एक ही प्यास रही कि वह हमेशा परमेश्वर पिता की महिमा करे! उसने हर काम में पिता को महिमा दी।

० उसे शास्त्र का ज्ञान था और वह जानता था कि किस वचन को कब पूरा करना है, योजनानुसार वह उन्हें पूरा करता गया।

वह समझ गया था कि पिता ने उसके जीवन के लिये जो कुछ पृथ्वी पर रखा था, वह पूरा हो चुका था। वह दुख में होके भी सारी बातों पर ध्यान दे रहा था। अब आगे उसे क्या करना था उसे अच्छी तरह याद था । यही वह सही समय था जब उसे कहना था "मैं प्यासा हूँ।" उसी में और उसके द्वारा वचन को पूरा होना था। यहां यह बात स्पष्ट होती है कि वह मसीह था। उसने जो कुछ भी अभी तक किया सब कुछ वचन के अनुसार था, उसने वचन को तोड़ा नहीं परन्तु व्यवस्था तथा भविष्यद्वाणी को पूरा कर दिया ।

पहली बात यहां हम देखते हैं कि शास्त्र ने पहले से उसकी प्यास के विषय लिख दिया था। क्योंकि यदि वह यह न करता तो शास्त्र अधूरा रह जाता।

"और मेरी जीभ मेरे तालू से चिपक गई." भजन 22:15 दूसरी बात जो उसे पीने के लिये दिया गया, वह भी वचन में पहले से लिख दिया गया था।

"और मेरी प्यास बुझाने के लिये मुझे सिरका पिलाया।" भजन 69:21

मत्ती 27:24 में पुराने नियम की इस बात को यीशु के जीवन में हम पूरी होते देखते हैं

इस बात से हमें संतोष मिलता है कि भले हमें दुख उठाना पड़े उसमें परमेश्वर की इच्छा पूरी होती है, तथा परमेश्वर का वचन पूरा होता है। यीशु का इस स्थिति में आना, निन्दा सहना, घायल किया जाना भी परमेश्वर की इच्छा में था। और यीशु ने बिना प्रतिशोध के इस स्थिति को स्वीकार किया। परमेश्वर का वचन इस स्थिति में भी पूरा हुआ। जैसे सुख हमारे लिये परमेश्वर की इच्छा है वैसे दुख भी हमारे लिये उसकी इच्छा है।

सिपाही और सिरका

1. सिपाही

क्रूस पर चढ़ने के पहले सिपाहियों द्वारा उसके बदन को छलनी करना, क्रूस पर कीलों से ठोक कर तरह तरह के ताने मारना ये सिपाहियों की आदत में था। कानून के अनुसार उन्हें ये अधिकार था। वे क्रूस पर चढ़ाये जा रहे अपराधियों के साथ तरह तरह का अत्याचार करते थे... और यीशु के साथ जो हुआ वह बहुत ही ज्यादा था। क्योंकि सारी रोमी सरकार तथा यहूदी अधिकारी बहुत पहले से यीशु को समाप्त कर देना चाहते थे।

यीशु का सामर्थी होकर भी इन सिपाहियों को कुछ न कहना परन्तु उन्हें क्षमा कर देना यह उसके ही क्षमा के प्रचार का सच्चा कार्य रूप है। किसी और के साथ सिपाही ऐसा करते तो अपराधी अवश्य क्रोधित होता, गालियां देता, श्राप देता ।

सिपाही अपना कर्तव्य पूर्ण कर रहे थे। 2000 वर्ष पूर्व रोम की यह कानूनी व्यवस्था कितनी खतरनाक थी। सिपाहियों की क्रूरता चरम सीमा पर थी। एक तरफ हम यीशु के प्रेम भरे स्वभाव सहनशक्ति, क्षमा करने की क्षमता के कारण उसकी सराहना करते हैं तो दूसरी ओर सिपाहियों की इतनी भयानक क्रूरता को देखते हैं। क्रूस पर दो व्यवहार स्पष्ट दिखाई देते हैं । यीशु ने सिपाहियों को भी आदर दिया, उनके अपराधों के प्रति कोई प्रतिशोध नहीं किया परन्तु ये सिपाही उसे मारते रहे, सताते रहे, जलील करते रहे।

यीशु का जब जन्म हुआ तब उसके साथ दूत, माता-पिता, चरवाहे, मजूसी थे, ईनाम थे। आज यहां हम यीशु को मरते समय देखते हैं उसके पास रोमी सिपाही हैं जिनके होठों से ऐसी एक भी बात नहीं निकल रही है जो यीशु को थोड़ी सी तसल्ली दे सके। उन्होंने एक भी काम ऐसा नहीं किया जो यीशु के दर्द को थोड़ा भी कम कर सके।

ऐसा लगता है कि यह रोमी सरकार के इतिहास की सबसे भयानक और क्रूरता से भरी सजा रही होगी। इसे हम बार-बार पढ़ते तथा विचार करके सिहर उठते हैं। उन महिलाओं के विषय में सोचिये जिन्होंने अपनी आंखों से ये सब देखा था...महसूस किया था... वह तड़पता था पर वे पास नहीं जा सकती थीं...खून बह रहा था पोछ नहीं सकती थी। सिपाहियों की इतनी क्रूरता, देखकर ताने सुनकर भी चुप थीं।

2. सिरका

सिरके से भरा एक बर्तन क्रूस के नीचे रखा था। संभव है कि जब इस प्रकार का क्रूस का दण्ड दिया जाता था तो प्रथा थी कि उसमें से अपराधी को पिलाया जाये या जैसा कुछ लोग विचार रखते हैं कि यह यीशु का मजाक उड़ाने के लिये रखा गया यहां पर प्याले में सिरका पिलाने के लिये था जो मरने वाले अपराधी को दिया जाना चाहिये पर उसकी जगह स्पंज को सिरके में भिगाकर उसके मुंह से लगाया गया ।

कुछ लोग कहते हैं स्पंज जिसमें पहले से पानी था उसे सिरके में डूबोकर यीशु को चुसाया गया।

जब वह प्यासा था, उसे पानी का प्याला चाहिये था। मरते. समय दुनियां ने उसे पानी भी पीने नहीं दिया। पानी से उसे कुछ तो संतुष्टि मिलती। परन्तु उसने उनके इस कार्य के प्रति अपने को समर्पित कर दिया ताकि हमें आराम मिले तथा हम ताजा हों, उसने उस सिरके को भी हमारे लिये ग्रहण कर लिया।

सिरका, दाख से बना पेय है जो अलग-अलग प्रकार से अलग-अलग उपयोग के लिये बनता है। जो सिरका उसे क्रूस पर चढ़ाने के पहले दिया गया था वह भिन्न था।

"उन्होंने पित्त मिलाया हुआ दाखरस उसे पीने को दिया, परन्तु उसने चखकर उसे पीना न चाहा।” (मत्ती 27:34) उस समय उसने सिरका नहीं पिया, शास्त्र की बात पूरी नहीं हुई । परन्तु यहां पर उसने मांग कर पिया, ताकि शास्त्र की बात पूरी हो ।

सिरके के विषय में हम दो और परंपराओं को पढ़ते है ।

• कुछ महिलायें. क्रूस पर चढ़ाये जाने वाले अपराधियों के लिये विशेष सिरका लेके आती थीं। जो उन्हें दर्द कम करने के लिये दिया जाता था ।

• सिरके के बारे में एक और बात कही जाती है कि रोमी सिपाहियों को राशन में सिरका मिलता था जिसे "पोस्का"

( एन बी०डी० पृ० 1225) कहते थे।

यह स्पष्ट नहीं है कि वह कैसा सिरका था, पर यह बात स्पष्ट है कि यीशु को सिपाहियों ने सिरका दिया, और जिस प्रकार उसे सिरका दिया गया वह निंदनीय था। परन्तु यीशु ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, परन्तु अपने को समर्पित कर दिया ताकि शास्त्र में जो बात लिखी है, वह पूरी हो जाये।


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