पहला वचन - हे पिता इन्हें क्षमा कर क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे है?

Krus Vani | क्रूस वाणी |  पहला वचन - हे पिता इन्हें क्षमा कर

जब हम सृष्टि से लेकर द्वितीय आगमन से संबंधित, परमेश्वर के वचन को देखते हैं तो उसमें परमेश्वर की क्रमबद्ध योजना दिखाई देती है। जो कुछ पहले हो चुका तथा आज हो रहा है,

वह वचन के अनुसार ही हो रहा है। वर्तमान जो संसार का रूप है, वह संघर्षों से भरा है। एक व्यक्ति, एक परिवार, समाज, प्रदेश, राष्ट्र सब तरफ संघर्ष ही संघर्ष है। मनुष्य जितना क्रूर इस युग में हो चुका है उससे ज्यादा क्रूर शायद और किसी युग में नहीं हुआ होगा। हर समय, हर तरफ, चाहे दिन हो, चाहे रात, चारों ओर हमें क्रूरता व आंतक की खतरनाक तस्वीर दिखाई देती है। एकता तथा शांति के जितने अधिक प्रयास किये गये हैं। उसकी वैसी सफलता सामने नहीं आई है जितना हमने सोचा व चाहा है।

2009 वर्ष पीछे जाके हम अगर देखें तो क्रूरता व आंतक का घिनौना चेहरा वहां भी दिखाई देता है। इस क्रूरता व आतंक से निपटने का जो तरीका प्रभु यीशु ने प्रयोग किया, वह आज हम सबके लिये एक सही दिशा है। यीशु के पैदा होने से लेकर क्रूस तक हम उसके साथ हुये संघर्ष, विरोध, वाद-विवाद, मृत्यु के प्रयासों को देखते हैं। और इन संघर्षो से निपटने का उसने एक अनोखा ही रास्ता अपनाया। वह है "प्रार्थना" । इन प्रार्थनाओं के द्वारा हम यीशु को संघर्ष से लड़ने के लिये तैयार पाते हैं। प्रार्थना ही उसकी सामर्थ थी जो उसे हर परिस्थिति के लिये तैयार करदेती थी ।

"हे पिता इन्हें क्षमा कर क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे है?"

किसी भी व्यक्ति की प्रार्थना ऐसी नहीं हो सकती जिसका पिता के साथ गहराई का अटूट संबंध न हो तथा जिसने क्षमा करने के चरित्र को अपने जीवन में नहीं अपनाया हो। इन शब्दों को जब हम देखते हैं तो लगता है कि यीशु कितना अधिक पिता के साथ संबंध बिताने वाला व्यक्ति है जो क्षमा करने की योग्यता के स्रोत पर विश्वास करता है, तथा अपने साथ क्या हुआ यह न सोचकर, इन्होंने जो मेरे लिये किया उसके दण्ड से इन्हें कैसे बचाया जाये, उसको प्राथमिकता दे रहा है, उसी के मुख से ऐसे ,शब्द निकल सकते हैं। कौन प्रार्थना कर रहा है, तथा किससे प्रार्थना कर रहा है, दोनो का व्यक्तित्व, मनुष्य की योग्यता के बहुत ही ऊपर दिखाई पड़ता है।

क्षमा की प्रार्थना करने वाला, क्षमा का प्रदर्शन इससे पहले कई बार कर चुका है। उसने अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग लोगों को, अलग-अलग पापों के लिये क्षमा किया है जो उसकी स्वर्गीय सामर्थ को प्रकट करता है। यह एक लंबे समय तक आपस में हुई परमेश्वर तथा यीशु के बीच की संगति से उत्पन्न यीशु के प्रेम की एक अभिव्यक्ति है जो एक सांसारिक, मानवीय व्यवहार से कहीं बहुत ऊपर के व्यवहार को दिखाती है। एक दूसरे के बीच के प्रेम, संगति तथा उससे उत्पन्न सामर्थ के कारण ही ऐसी प्रार्थना होठों पर आई । वह भी इस समय जब वह अपनी मृत्यु से कुछ ही घंटे दूर है।

हे पिता इन्हें क्षमा कर

पूरी बाइबल में कई नबियों की भविष्यवाणियों के पूर्ण होने के विषय में हम पढ़ते हैं । यीशु के जन्म से लगभग सात सौ से भी ज्यादा वर्ष पूर्व की गई भविष्द्वाणियां यीशु के संपूर्ण जीवन में पूरी हुई हैं यह प्रार्थना भी यशायाह भविष्यद्वक्ता के द्वारा की गई थी:

"अपराधियों के लिये विनती करता है।”

इस तरह की बातें और किसी धर्म में कही नहीं गईं और न पूरी हुई हैं। यीशु के प्रार्थना के जीवन की सामर्थ उसके ईश्वरीय व्यक्तित्व को प्रस्तुत करती है। अपराधियों के लिये विनती करना और ऐसे अपराधी, जो उसको मार डालने के लिये सामने खड़े थे। अपने घायल, थके शरीर की पीड़ा की परवाह न कर, इन अपराधियों के भविष्य में आने वाले पाप के दण्ड से इन्हें बचाने के लिये प्रार्थना करना, उसकी सच्ची चिन्ता को दर्शाता है। वह नहीं चाहता था.. कोई भी नाश हो, यहां तक कि उसको मारने वाले अपराधी भी !


क्रूस के सामने यहूदी भी थे तथा रोमी सिपाही भी ! वह किसे संबोधित कर रहा है, यह एकदम स्पष्ट नहीं है। शायद दोनो को ! रोमी सिपाही यह बात नहीं जानते थे कि वह परमेश्वर का पुत्र है, वे केवल अपने अधिकारियों के आदेश का पालन कर रहे थे। यहूदी जानते थे कि सचमुच में वह निर्दोष है। यदि वे प्रमाण चाहते तो मिल जाता । परन्तु उन्हें यह बिल्कुल पता नहीं था कि उनका जो दोष था उसका क्या परिणाम होगा ? यदि वे देखना चाहते तो वे देख सकते थे कि वह मसीहा है..... उनके शास्त्रों में आने वाले उद्धारकर्त्ता की प्रतिज्ञा थी। पर उन्हें यीशु के अधिकार तथा महिमा पर तथा यीशु, शास्त्र की प्रतिज्ञा की पूर्णता है, इस बात पर उनका विश्वास नहीं था । यदि वे यह जाने पाये होते तो यीशु को क्रूस पर नहीं चढ़ाते। ऐसा भी नहीं कि वे जानने के बाद उसे क्रूस पर चढ़ा रहे थे इस घटना से यह परिणाम निकलता है कि यहूदी व रोमी, दोनों यीशु को क्रूस पर चढ़ाने के पाप के अपराधी थे। उनकी अज्ञानता पर पौलुस लिखता है।


"जिसे इस संसार के हाकिमों में से किसी ने नहीं जाना, क्योंकि यदि जानते, तो तेजोमय प्रभु को क्रूस पर न चढ़ाते ।”

टीकाकार बार्न की व्याख्या अनुसार इस प्रार्थना में हम चार बातें सीखते हैं :

1. कर्तव्य : अपने शत्रुओं के लिये प्रार्थना करना हर विश्वासी का कर्तव्य है चाहे वे हमें मार डालने का भी प्रयास क्यों न करें।

2. कारण : हम क्यों प्रार्थना करें ? हम इसलिये प्रार्थना करें कि परमेश्वर उन्हें क्षमा करे तथा उनके मनों को बदल दें।

3. सामर्थ तथा महानता : यह मसीही धर्म की सामर्थ तथा महानता है। और कोई धर्म यह नहीं सिखाता कि अपराधियों की क्षमा के लिये प्रार्थना करो। कोई अन्य धर्म ऐसा करने की प्रेरणा नहीं देता। इस संसार के लोग बदला लेने, मिटा देने के लिये तैयार होते हैं। एक मसीही अपमान सहता है, तथा सताये जाने पर धीरज धरता है, चुप रहता है, क्योंकि यीशु ने ऐसा ही किया। वह प्रार्थना करता है कि उन्होंने जो चोट पहुंचाई है, उन्हें परमेश्वर क्षमा करे तथा उनके पाप से उन्हें बचा ले।

4. सबके लिये क्षमा : यीशु की प्रार्थना बड़े से बड़े पापी को भी परमेश्वर की क्षमा दिला सकती है। परमेश्वर ने क्रूस पर लटके डाकू की प्रार्थना को उस समय सुना तथा अभी भी सुनता है। आज भी पापी, चोर, डाकू, लुटेरे, हत्यारों, व्यभिचारियों, आतंकवादी जो नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं, यीशु उनके लिये भी क्षमा की प्रार्थना करता है । हमें भी उनके लिये यही प्रार्थना करना है, उनको क्षमा मिले, उनको नया जीवन मिले। आप जो यह पुस्तक पढ़ रहे हैं, विश्वास किजिए आज आप कितने बड़े भी पापी क्यों न हों.... आपको यीशु की प्रार्थना से क्षमा मिल सकती है।

"क्योंकि ये नहीं जानते कि क्या करते हैं ?"

जो कुछ भी हुआ यह अनजाने में, अज्ञानता में हुआ है। पौलुस कहता है (प्रेरितो 3:17)

'और अब हे भाईयो, मैं जानता हूँ कि यह काम तुमने अज्ञानता से किया,और वैसा ही तुम्हारे सरदारों ने भी किया ।" यदि वे महिमा के प्रभु को जानते तो वैसा कभी नहीं करते।

अज्ञानता एक अपराध को यू हीं भूला नहीं देती यदि यह अपराध जान बूझकर किया गया हो, पर यह इसके दोष को कम कर देती है। उनके पास प्रमाण थे, वे जान सकते थे कि वे क्या कर रहे हैं और वे उसके लिये जवाबदार हो सकते थे।

यहां यीशु अपने हृदय की सच्ची दया व करूणा को दिखा रहा है मानो कि वे "सचमुच में" अज्ञान हों... उनकी अज्ञानता का कारण चाहे कुछ भी रहा हो, वह परमेश्वर से उनके लिये क्षमा की विनती करता है। वह इसके कारण बताकर परमेश्वर से विनती करता है कि उन्हें क्यों क्षमा किया जाये । यद्यपि लोग अज्ञानता के दोषी होते हैं परन्तु फिर भी परमेश्वर अपनी दया में, इसे अनदेखा कर सकता है, अपने क्रोध को हटा सकता है तथा जीवन तथा क्षमा की आशीषें दे सकता है। पौलुस लिखता है "मैं तो पहले निन्दा करने वाला और सताने वाला और अंधेर करने वाला था तौभी मुझ पर दया हुई, क्योंकि मैने अविश्वास की दशा में बिन समझे बूझे, ये काम किये थे।" (1 तीमुथियुस 1:13)

वर्तमान संदेश

क्रूस पर यीशु की मृत्यु भी, भविष्यद्वाणियों के आधार पर थी। जीवन के अंतिम क्षणों में, यीशु के द्वारा बोले गये सात वचनों से वे क्षण बहुत ही बहुमूल्य हो गये। जाते जाते भी प्रचार तथा पापियों को बचाने का अवसर यीशु को मिला। जब तक वह मरा तब तक वह स्वतंत्रता से बोलता रहा। जो वर्तमान समय तथा आने वाले समयों में संपूर्ण विश्व के लिये अनोखा संदेश है। अंत समय तक वह पिता की महिमा करता रहा तथा मनुष्य के साथ अपनी संगति, चिंता तथा पाप के उद्वार का संदेश देता रहा। उसके पहले वचन में हम विभिन्न रहस्यों को आज देख सकते हैं।

जो पाप अब तक हुये थे, उसकी क्षमा संभव नहीं थी । परन्तु प्रभु यीशु की प्रार्थना ने उसको संभव बनाया। सबसे पहले यीशु ने जाते जाते पापियों की चिंता को अपनी प्रार्थना में व्यक्त किया। कुछ क्षणों के लिये सोचिये यदि यीशु क्षमा की प्रार्थना नहीं करता तो क्या होता ?

इस प्रार्थना में एक अनोखी सुंदरता है। यह प्रार्थना संतों के लिये नहीं परन्तु पापियों के लिये की गई। जब हम प्रार्थना करते हैं तो हम अपनी आशीषों के लिये धन्यवाद करते, मांगों को रखते तथा अच्छे लोगों के लिये प्रार्थना करते हैं। शायद प्रार्थना करते समय ऐसे पापियों का हमें खयाल भी नहीं आता ।

पापियों की दशा को लेकर परमेश्वर पिता के पास ले जाने वाला यीशु मध्यस्थ बना। वह स्वयं याजक बना तथा बलिदान भी बन इतिहास में पहले कभी ऐसा नहीं हुआ। उसकी मध्यस्थता ने सारी पुरानी व्यवस्था को समाप्त कर दिया। आज ना याजक की आवश्यकता है ना बलिदान की

क्रूस पर चढ़ाने वाले तथा अन्य धर्म के लोग यीशु के बारे हमेशा बुराई करते थे क्योंकि वे यह नहीं जानते थे कि यीशु वास्तव में कौन है ? और मसीहियत क्या है? आज भी यही हो रहा है.. उसे जाने बिना, लोग उसे मिटाने पर तुले हैं.. पर यह प्रार्थना उनको ही बचाने के लिये है ।

अज्ञानता इस बात का प्रमाण है कि लोगों में सही ज्ञान का अभाव है वे सही शिक्षा प्राप्त करने में अयोग्य है। आज लोगों की अज्ञानता के विषय यीशु यही प्रार्थना कर रहा है।

अपराधी सैनिकों ने समझा नहीं, उन्हें अज्ञानता में रखा गया था। उनके दिमाग में बार-बार यही बात डाली गई कि यीशु ने व्यवस्था के, सरकार के, ईश्वर के विरूद्ध कार्य किया है इसलिये उन्होने सोचा हम जो कर रहे हैं ईश्वर के पक्ष में कर रहे हैं।

प्रार्थना जो की गई, उसका वहीं उत्तर मिला, उससे एक डाकू प्रभावित हुआ। एक सिपाही का जीवन बदला, यीशु के जी उठने व ऊपर उठा लिये जाने के बाद पतरस द्वारा दिये गये क्रूस के संदेश से कितनों के जीवन बदल गये, आज भी बदल रहे हैं।