सातवां वचन - हे पिता मै अपनी आत्मा तेरे हाथों में सौंपता हूँ 

7 Krus Vani | क्रूस वाणी | क्रूस पर यीशु की अंतिम सातवां वचन


यीशु मसीह के जीवन के अंतिम क्षण इन सुंदर वचनों से भरे होंगे। मरने की शैली नमूने योग्य होगी! किसी ने भी नहीं सोचा होगा । जिसका जन्म अनोखी घटनाओं से भरा था.....उसकी मृत्यु में भी अनोखी बातों का होना अपेक्षित था। पहले के छः वचनों में इस संसार ने जीवन बदलने वाले संदेशों को पाया। मृत्यु के पहले इस सातवें तथा अंतिम वचन के साथ हम आकाश और पृथ्वी दोनों स्थानों पर, पहले कभी न सोची गई घटनाओं की देखते हैं। 

★ अंधियारा छाया रहा।

जब यीशु का जन्म हुआ तो .... "प्रभु का तेज चमका” (लूका 2:8) यहां वचन बताता है.... दोपहर से तीसरे पहर तक अंधियारा छाया रहा। तीन घण्टे तक सारे आकाश व पृथ्वी पर अचानक अंधेरा हो गया। इस तीन घण्टे के अंधेरे के राज को कौन समझ पाया होगा ? सूरज कहां चला गया दोपहर को ? कितने घने बादल छा गये सारी पृथ्वी पर । सूरज भी अपने सृष्टिकर्ता के बिछोह में रौशनी देना कुछ समय के लिये छोड़ दिया। क्या और किसी की मृत्यु प्राकृतिक शक्तियों पर इस तरह राज कर सकी जैसा यीशु की मृत्यु ने किया।

★ मंदिर का परदा फट गया।

उस समय मंदिर, आराधना व व्यवस्था का महाकेन्द्र था। हर व्यक्ति का जीवन इनके बिना चल नहीं सकता  था,मंदिर एक भय व आदर की जगह थी। उसके अंदर का परदा लोगों को बांट देता था । व्यवस्था केवल याजकों को ही परदे

के आगे जाने की अनुमति देती थी। एक आम यहूदी के लिये वहां तक पहुंचना असंभव था। वह स्थान महापवित्र था लेकिन यीशु की मृत्यु से मंदिर का परदा बीच से फट गया। जहां आकाश में एक महाशक्ति ने सर झुका दिया, वहां पृथ्वी पर मंदिर में जहां उसका निवास था वहां परदा विद्रोह कर बैठा जिससे बलिदान के अनुष्ठान की पुरानी व्यवस्था जाती रही....जो यहूदी और अन्य जाति के बीच दीवार बनकर खड़ी थी। जिससे परमेश्वर तक पहुंचने की सारी कठिनाइयों तथा निराशाओं का अंत हो गया ताकि हम निर्भयता से अनुग्रह के सिंहासन तक जायें।

★ बड़े शब्द से पुकार कर कहा ।

'ये शब्द मसीह की मृत्यु को समझाते हैं:

"हे पिता मैं अपनी आत्मा तेरे हाथों में सौपता हूं।"

मृत्यु के पहले इन्हीं शब्दों के साथ पृथ्वी से कूच करना बहुत धन्य हो सकता है।

ये शब्द दाऊद ने कहे थे....उन्हीं वचनों को यीशु ने अपने लिये प्रयोग किया। यह मसीह का आत्मा है जो पुराने नियम के भविष्यद्वाणी द्वारा प्रमाणित किया गया। यीशु की मृत्यु के समय शास्त्र का वचन मुंह में था। यह शैली हमको शास्त्र की भाषा का इस्तेमाल कर परमेश्वर को संबोधित करना सिखाती हैं।

• मृत्यु के समय पिता को उसका स्मरण करना भी मृत्यु को सही दिशा देता है। जब वह छोड़ दिया गया व अकेला हो गया तब भी यीशु,पिता को संबोधित करता था। पर वह पीड़ा व वेदना समाप्त हो चुकी, अब वह पिता को समर्पण के लिये पुकार रहा है ।

• यह प्रार्थना मध्यस्थता की थी। यीशु अपनी आत्मा को पाप के बलिदान के रूप में सौंप रहा था, बहुतों की छुड़ौती के लिये दे रहा था (पढ़ें यशायाह 53:10,मत्ती 20:28) वह स्वयं याजक था,भेंट था। बलिदान की कीमत परमेश्वर के हाथों में दी जानी थी। भेंट तब स्वीकृत होती है जब वह पिता के हाथों में दी जाती है... और यीशु ने यही किया। और इसे सुइच्छा से आनन्द के साथ किया।

यहां से हम यीशु को पिता पर पुनरूत्थान हेतु निर्भर होते देखते हैं। वह अपने आपको पिता के हाथ में सौंपता है ताकि उसे पिता स्वर्ग में ग्रहण कर ले।

यीशु की मरने की इस शैली में हमें यह देखना सिखना है कि हम स्वतंत्र होकर मरने की इच्छा करें, जो इस बात का प्रमाण है कि हम मृत्यु के बाद दूसरे जीवन पर विश्वास करते हैं,जिसकी हमें आशा है। हमारी इच्छा यह है कि हम भी अंत में यही कहना चाहते हैं,

हे पिता मैं अपनी आत्मा तेरे हाथों में सौंपता हूं।

★ रोमी सूबेदार का विश्वास !

कई बार ऐसा होता है कि किसी के जीवित रहते हम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता परन्तु किसी की मृत्यु हमें प्रभावित कर देती है। वह रोमी नागरिक था, अन्य जाति था, इस्राएल की आशाओं से अनजान था, फिर भी वह परमेश्वर की महिमा कर उठा। उसने अपने जीवन में कभी भी ईश्वरीय शक्ति का ऐसा चौंकाने वाला दृश्य नहीं देखा था। आज उसे यह अवसर मिला और वह महिमा कर उठा । उसने धीरज के साथ दुख उठाने वाले यीशु की गवाही दी, "सचमुच यह धर्मी व्यक्ति था ।" उसे अन्याय से दण्ड दे दिया गया है (लूका 23:47)

★ देखा और लौट गये!

वहां कुछ ऐसे दर्शक भी थे। जैसे आजकल कहीं कुछ हो रहा हो तो लोग देखने चले आते हैं। जो कुछ होता रहा वहां वे सब देखते रहे। यहां यह बात स्पष्ट है कि वहां पर भीड़ इकट्ठी हुई थी। उनकी उपस्थिति का इन घटनाओं से कोई संबंध नहीं था। जब तक वे देखते रहे, भले उनका इस घटना से कोई सम्बन्ध न रहा हो पर वे भी मनुष्य थे उनके दिल को कुछ तो महसूस हो रहा था। बात यह भी थी कि क्रूस का दण्ड क्या है, उस समय के लोग जानते भी होंगे। उनकी उत्सुकता जागी होगी कि वे यह पता लगायें कि ये तीनो कौन है... क्यों उन्हें क्रूस का दण्ड दिया गया है ? बताने वालों ने कितनी सच या कितनी झूठी बात कही होगी। ये बातें यहां स्पष्ट नहीं हैं। परन्तु उस समय इस दृश्य को देखकर कई लोग भावुक हो गये होंगे। शायद उसमें वे भी होंगे जिन्होंने चिल्लाकर कहा था उसे क्रूस पर चढ़ाओ! क्रूस पर चढ़ाओ। "लेकिन जब अंधेरा हो गया, भूई डोल हुआ, जिस तरीके से वह मरा... वे ये सब देखकर डर गये थे..... उनका विवेक अवश्य जागा होगा.... कईयों को महसूस हो गया होगा कि हमने जो भी किया गलत किया! हम बहक गये थे।

भीड़ छाती पीटती हुई लौट गई.... जब तक वे वहां थे, उन्हें कुछ हो रहा था.... उनके मन में मसीह के लिये उतना आदर नहीं था... थोड़ी देर के लिये प्रभाव पड़ा और जल्दी खत्म भी हो गया। एक अन्य जाति रोमी सूबेदार ने सच्चाई को जान लिया... पर सामने सच्चाई को देखते हुये भी भीड़ मुंह मोड़ कर चली गई।

इसी प्रकार हममे से कई जब तक परमेश्वर का वचन सुन रहे हैं,संस्कार में भाग ले रहे हैं...वर्तमान में थोड़ी देर के लिए प्रभावित हो जाते है। लेकिन थोड़ी देर बाद उसका प्रभाव नहीं रहता। वे छाती पीटते हैं और चले जाते हैं। वे रीति विधियों, जागृति सभाओं में, वचन प्रचार में यीशु का चेहरा देख लेते हैं,उसकी सराहना भी करते हैं, फिर लौट जाते है, और भूल भी जाते हैं कि वह कौन था ? और उसे क्यों प्रेम करना चाहते हैं ?

इस वचन को पढ़ते हुये, चालीस दिन उपवास काल मनाते हुये, शुभ शुक्रवार की आराधना में वचनों पर मनन करते हुये हममें से कई बड़े भावुक व दुखी रहते हैं लेकिन जब उस जगह से हम उठकर वापस लौटने लगते हैं तो हमारा मन हमारे पुराने जीवन में ही लौट जाता है।

★ अपने भी दूर थे!

"और उसके सब जान पहचान और जो स्त्रियां गलील से उसके साथ आई थीं, दूर खड़ी हुई थे सब देख रही थीं।" (लूका 23:49)

उसके अपने मित्र तथा अनुयायी दूरी बनाये हुये थे। उसके जान पहचान के लोग जो दूर थे, यदि पास में होते तो अवश्य यीशु की दृष्टि उन पर पड़ती उसका अनुग्रह उन पर पड़ता। जब पास होना था...तभी वे दूर हो गये। “तूने मित्र और भाई बन्धु दोनों को मुझसे दूर किया है, और मेरे जान पहचान वालों को अंधकार में डाल दिया है।" (भजन 88:18) हम यीशु से जुड़ी मृत्यु तक हर बात में वह सच्चाईयां देख रहे हैं जिनके विषय में पहले से लिख दिया गया है। जो स्त्रियां गलील से आई थी.... दूर खड़ी हुई सब देख रही थीं। इस भीड़ में स्त्रियों की अंत तक उपस्थिति मसीहियत में उन्हें विशेष प्रशंसा का पात्र बनाती हैं। वे देख रही थीं लेकिन यह नहीं जान पा रही थीं कि इन सब बातों का क्या अर्थ है! आगे क्या होगा ? उन्होंने पुनरूत्थान की बातें यीशु से सुनी थीं। उनके विश्वास के सामने शायद यह सवाल उठ रहा होगा.....इन सब घटनाओं के बाद पुनरूत्थान कैसे होगा ? अब यीशु का क्या होगा?

 लेकिन इस अंतिम घड़ी में स्त्रियों का ठहरे रहना उन्हे विशेष सम्मान प्रदान करता है। भले वे कुछ नहीं कर सकती थीं पर उनकी उपस्थिति प्रभु के प्रति उनके प्रेम को प्रकट करती है। यही वह समय है जहां साथ होने तथा पास होने का अनुभव अंतिम संगति प्रदान करता है। जब जन्म होता तब कई आते हैं परन्तु जब मृत्यु होती तो वही आते हैं जो अपने होते हैं।

सात वचनों पर किया गया मनन हर वर्ष मुझे रोमांचित करता है। इसमें छिपी सच्चाईयाँ हमेशा आकर्षित करती हैं.... पर जो बातें प्रभु हमारे जीवन में देखना चाहता है... क्या हम उन बातों को अपने जीवन में करके दिखा सकते हैं। आइये इन सात वचनों पर आधारित सात प्रश्नों को अपने आप से पूछे !

1. हो सकता है आपको किसी ने सताया होगा, आपका अपमान किया होगा, आपको चोट पर चोट लगी होगी, क्या आप क्रूस पर पहले वचन के शब्दों के साथ उसके लिये प्रार्थना करेंगे ?

2. आपको कुछ बुरे लोगों के साथ गिना गया जब कि आपका कोई दोष नहीं था, आप जिन बुरे लोगों के साथ थे उनके प्रति आपकी क्या प्रतिक्रिया है ।

3. यदि आपके पास माता-पिता हैं तो आपका उन के साथ व्यवहार कैसा है ? क्या आपने मां से कहा, "मां मुझे तुम्हारी चिंता है।" पिता से कहा "पिता जी मैं आपके लिये सोचता हूँ ।

4. आपने अनुभव किया होगा, आप टूट गये होंगे....ऐसे समय में आपने क्या प्रति क्रिया दिखाई ? धीरज या कड़वापन ?

5. दुनिया कई चीजों की प्यासी है पैसों की, जमीन की, पद की, नाम की, लोकप्रियता की, भोग विलास की, सच्चाई की, शांति, आनन्द की, उद्धार की ? आप किसके प्यासे हैं?

6. आपको इस व्यस्त संसार में कई काम करने हैं। आप कामों को कैसे कर रहे है...क्या आप अंत में कह पायेंगे "पूरा हुआ।"

7. जब आप मरेंगे...उस समय आप क्या अंत में यह प्रार्थना कर सकेंगे "हे पिता मैं अपनी आत्मा तेरे हाथों में सौंपता हूं।"

मेरी आप सबके लिये प्रार्थना है कि आप सात वचनों पर मनन करें, और प्रभु से अनुग्रह मांगे कि जब हम इस संसार से जायें, ऐसी प्रार्थना करके जायें।

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