दुसरा वचन - तू आज ही मेरे साथ स्वर्गलोक में होगा
"डाकू" या "चोर" के विषय हमने पढ़ा है, उन्हे देखा है, उनके विषय में सुना है । पर शायद ही हममे से कोई उनके साथ होने का अनुभव किया होगा! यीशु मसीह के जन्म के बाद से गतसमनी तक हम अलग-अलग स्थानों पर यीशु के सामर्थ के काम देखते हैं पर पकड़े जाने के बाद से वह अपनों से अलग रोमी, यहूदी अधिकारी तथा सिपाहियों के साथ रहा, और जब उसे क्रूस की सजा सुनाई गई तो उसे डाकुओं के साथ कर दिया गया। उसे अपमानित करने का स्तर बढ़ता चला गया।
क्रूस पर चढ़ाये जाने के लिये शायद इन दोनो डाकुओं के लिये यह दिन निश्चित किया गया था। परन्तु रोमी सरकार ने यीशु को भी उसी दण्ड के लिये उसी दिन को निश्चित कर दिया ताकि तीनों को क्रूस पर चढ़ा के मार डाला जाये। जिस स्थान पर वे ले जाये गये......वह कलवरी था, यूनानी भाषा में उसे "गुलगुता" कहा गया है अर्थात खोपड़ी का स्थान । यीशु के दुख व अपमान की इससे बड़ी सीमा और क्या हो सकती थी जहां उसे लज्जित करने तथा पराजित करने के लिये ले जाया गया। यीशु के शत्रु अपनी क्रूरता की सीमा को यहां तक पहुंचाना चाहते थे. ..पर दोनो डाकुओ के बीच यीशु को डाकू के स्तर का ही अपराधी साबित करने की यह महान योजना, यीशु की मृत्यु पर जीत की जगह बन गई। यीशु ने वहीं कलवरी पर एक डाकू को जीत ही लिया। जिस तरह से उसे क्रूस पर चढ़ाया गया... क्रूस पर लिटा कर हाथ और पैरों पर कीलें ठोकी गई, क्रूस को खड़ा कर गड्ढे में जिस तरह डाला गया, वह सबसे लज्जाजनक, क्रूरता का कार्य था... यह एक मनुष्य के लिये बहुत ही अधिक पीड़ा दायक था।
देखिये मनुष्य की मनुष्य के प्रति बर्बरता का यह कैसा घृणित कार्य है। लोग खड़े-खड़े जरूर देख रहे थे....पर उन्हें यीशु की इस पीड़ा से कोई लगाव न था... उन्हें मजा आ रहा था । और वे अधिकारी ...जो सम्मानित तथा बुद्धिमानी के कारण समाज में सम्मानित माने जाते थे उस पर ताने कस रहे थे... उसकी पूरी सेवकाई की खिल्ली उड़ा रहे थे ।
"उसने दूसरों को बचाया, अपने को भी बचा ले।"
उनके मन में शायद यह बात उठती रही होगी... यीशु अब तूझे हमारे हाथ से कोई भी बचा नहीं सकता। वे सोच रहे थे कि हम जीत गये। वे उसे अपने आपको बचाने को चुनौती दे रहे थे। उसके दावों पर ताने कस रहे थे।
"यदि यह परमेश्वर का मसीह है, और उसका चुना हुआ तो अपने को बचा ले।" यहूदियों ने यीशु को कभी भी मसीहा नहीं माना। यहूदियों के लिये मसीह एक राजनैतिक राजा था जो उन्हें रोमी सरकार से मुक्त करवाता। पर हम देखते हैं कि यीशु खुद रोमी सरकार का कैदी बना उनके हाथ में था तथा स्वयं को मुक्त नहीं कर पा रहा था। आगे वे कह रहे थे..... "यदि तू यहूदियों का राजा है तो स्वयं को बचा ले।" यहूदियों ने यीशु को इसलिये सजा दी थी कि वह अपने को मसीह कहता था । रोमियों ने उसे- इसलिये सजा दी थी कि वह अपने आपको राजा कहता था ।
यहूदियों का राजा
ये शब्द जो क्रूस पर लिख के टांगे गये थे यह दोष पत्र था । इसी दोष के कारण उसे मृत्युदण्ड दिया गया था। परन्तु इस दोष पत्र ने सच्चाई का प्रचार कर दिया....... यह परमेश्वर की ओर से घोषणा थी कि वह सचमुच यहूदियों का राजा ही तो था ।
यह तीन भाषाओं में लिखा था जो उस समय के शिक्षित लोगों की भाषा थी (1) यूनानी (2) लातीनी तथा (3) हीब्रू। इस तरह यीशु को लज्जित किया जाना भी यीशु का तीन भाषाओं में राजा के रूप में प्रचार बन गया। परमेश्वर ने यह योजना बनाई कि यीशु का प्रचार सब राष्ट्रों मे हो तथा यरूशलेम में इसकी शुरूआत हुई। इन तीन भाषाओं ने सबसे पहले वहां से आने जाने वालों के सामने उसे राजा घोषित कर दिया।
शैतान तथा उसके लोग जब जब यीशु को मिटाने, मसीहियों को मारने की योजना बनाते हैं तो वही योजना परमेश्वर की प्रचार योजना बन जाती है। वर्तमान में हो रहे मसीहियों पर सताव, हत्या चर्चे को तोड़ना, जलाना...... क्षण भर में मास मीडिया के द्वारा संपूर्ण विश्व में यीशु के प्रचार का केन्द्र बन जाते हैं।
यहूदियों का राजा यीशु उस समय न केवल हंसी का पात्र बना परन्तु इन तीनों भाषाओं को जानने वालों के लिये परिचित बन गया। प्रभु की प्रार्थना में "तेरा राज्य आवे" का प्रारंभ बन गया। उसके कहे गये वचन ने एक डाकू को अपने राज्य का नागरिक भी बना दिया। यीशु जहां जहां भी रहा... स्वर्ग राज्य का प्रचार करता रहा और यहां पर भी अनजाने में उसके राजा होने का विज्ञापन कर दिया गया। न केवल एक डाकू उसके राज्य में शामिल हुआ पर एक सूबेदार भी उस पर विश्वास किया। यहूदियों के राजा ने क्रूस पर भी अपनी सेवकाई को चालू रखा।
अलग-अलग प्रभाव
क्रूस पर एक डाकू का हृदय परिवर्तन यीशु की अंधकार की शक्तियों पर जीत को प्रस्तुत करता है। यद्यपि यह लोगों को ऐसा दिखाई देता है कि शत्रुओं की जीत हुई। एक ही स्थान पर, एक ही परिस्थिति में प्रभु यीशु के वचन तथा उसके व्यवहार का अलग-अलग प्रभाव हमें दिखाई देता है। बीज जैसी जैसी जमीन पर गिरता है, उसके साथ वैसा ही प्रभाव पड़ता है। आप कितनी बार अलग-अलग सभाओं में इन वचनों पर विचार किये हैं... आप अपने को किस ओर पाते हैं यहां पर क्रूस किसी के लिये जीवन देने वाला तो दूसरे के लिये मृत्यु का रास्ता बना । पौलुस कहता है, "क्योंकि क्रूस की कथा नाश होने वालो के लिये मूर्खता परन्तु विश्वास करने वालों के लिये परमेश्वर की सामर्थ है ?"
कोई प्रभाव नहीं ।
दोनों में से एक ऐसा डाकू था कि इतना पास होके भी वह, वह नहीं देख सका जो उसे देखना था, और वह, वह नहीं सुन सका जो उसे सुनना था। जैसे दूसरों ने उसकी निन्दा की उसने भी उसी भाव में उसको चुनौती दी!
'क्या तू मसीह नहीं ? तो फिर अपने आपको और हमें बचा! (लूका 23:39)
कई बार हमारे चारों ओर उठ रही प्रतिक्रियायें तथा आवाजें हमें इतना ज्यादा प्रभावित कर देती है कि हम उनकी तरह सोचने व बोलने लगते है... हम अपने लिये क्या सही है यह न सोच पाते हैं, और न बोल पाते हैं। यद्यपि यह डाकू बड़ी पीड़ा तथा वेदना में था, मृत्यु की घाटी में था....इन सारे अनुभवों के बाद भी उसकी सोच में कठोरता थी, उसकी भाषा में नम्रता नहीं आई थी। कई बार हम भी चोट तथा दुख में नम्र होने के बदले और कठोर हो जाते हैं। जो हृदय कठोर होता है, कितना बड़ा भी दुख हो, कितनी बड़ी भी चोट हो, उस हृदय को बदल नहीं सकती। बल्कि कड़वाहट, आलोचना तथा क्रोध को जन्म देती है और ऐसे लोग मानते हैं कि यही सही प्रतिक्रिया है। यहां पर यह डाकू यीशु से जिस तरह बोलता है लगता है, आदेश दे रहा है, कडुवाहट से बोल रहा है। एक तरफ वह यीशु को अपमानित भी कर रहा है और दूसरी ओर उससे बचाने की उम्मीद भी कर रहा है। क्या किसी के लिये बुरा बोल कर हम उससे अपने लिये भलाई की आशा कर सकते हैं। इस डाकू की बातों तथा व्यवहार से यह स्पष्ट है, कि उसके मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उसने यह निर्णय ले लिया, यदि तू बचा नहीं सकता तो तू उद्धारकर्त्ता भी नहीं हो सकता।
• आपके जीवन में जब दुख और चोटें आती है.....आप पर क्या प्रभाव पड़ता है ? यदि यीशु के पास आके, उसकी आवाज सुनने के बाद भी, यदि आप कठोर होते चले जा रहे हैं....तो सोच • लीजिये ये कठोरता आपके जीवन को और जटिल बनायेगी,आपको और बेचैन कर देगी।
हृदय परिवर्तन
लेकिन वहीं क्रूस के पास एक और डाकू है जिसने वह देख लिया जो उसने जीवन भर नहीं देखा था, वह सुन लिया जो उसने सारे जीवन भर नहीं सुना था। कहा जाता है कि मत्ती मरकुस के अनुसार दोनों डाकुओं ने पहले यीशु का मजाक उड़ाया पर उसमें से एक का हृदय आश्चर्य जनक रूप से बदलने लगा और इसी कारण उसकी भाषा बदल गई। जब वह शैतान के हाथों पड़ने ही वाला था, मृत्यु की पापमय अग्नि में गिरने ही वाला था, उसी समय वह परमेश्वर के द्वारा छीन लिया गया। कुछ भी हो उसने मरते मरते अपने को बदल डालने का समय पहचान लिया और सही समय पर सही परमेश्वर को अपने आपको समर्पित कर दिया। अवसर को बहुमूल्य समझने का और इससे बड़ा उदाहरण कौन सा हो सकता है! कोई भी कभी भी ऐसा सोच नहीं सकता कि मरते मरते किसी को पश्चाताप करने का मौका मिल ही जायेगा। लेकिन इस डाकू को यहां यह बहुमूल्य अवसर मिल गया। यह अवसर दूसरे डाकू को भी मिल सकता था पर वह इस अवसर को पहचान नहीं पाया! उसको जीवन में कभी भी ऐसा समय नहीं मिला। पर इस समय परमेश्वर की सामर्थ के अनुग्रह ने उसे बचा लिया। यहां हम उसके हृदय तथा उसकी नई भाषा देखते है :
उसकी भाषा में हम यह देखते हैं कि उसे परमेश्वर का भय था, वह विश्वास कर रहा था कि परमेश्वर है, उससे डरना चाहिये। उसने कहा-"क्या तू परमेश्वर से भी नहीं डरता।"
यह कितनी अदभुत बात है कि एक डाकू जिसने मन की कठोरता, हिंसा, क्रोध, लूटपाट, हत्या के साथ जीवन बिताया था... जीवन के अंत में उसकी भाषा और सोच बदल गई। यदि आपका हृदय ठीक कार्य कर रहा है तो साथ में आप की तरह का दुख उठाने वाले व्यक्ति के साथ आप ऐसा व्यवहार नहीं करेंगे। इस डाकू के जीवन के अंत में हम एक नये व्यक्तित्व को देखते है।
वह मान लेता है कि उसे ठीक दण्ड मिला है। पाप के प्रति सबसे पहला कदम है पापों को मान लेना । इस विचार ने उसकी सोच को स्थिर कर दिया थे। संभव है कि दोनों डाकुओं का अपराध एक ही था जिसके लिये वह बड़े आश्वासन से कहता है।
'और हम तो न्यायानुसार दण्ड पा रहे हैं, क्योंकि हम अपने कामों का ठीक फल पा रहे हैं।"
ये दोनों पाप व दुख में सहभागी थे....पर एक ने समय को पहचाना तथा बच गया परन्तु दूसरा नाश हो गया। दो जो साथ-साथ क्रूस तक पहुंचे थे उसमें से एक उठा लिया गया, दूसरा वहीं छूट गया ।
• वह विश्वास करता है कि यीशु के साथ अन्याय हुआ है। यद्यपि यीशु को दो अदालतों में ले जाकर अपराधी घोषित किया गया... पर उसकी बात तथा उसका व्यवहार देखकर उसने जान लिया-यीशु दोषी नहीं है। आत्मा ने उसे यह सोचने का ज्ञान दिया....वह सच्चाई को समझ लिया ।
डाकू की प्रार्थना
डाकू और प्रार्थना! जी हां एक मरते हुये पापी ने मरते हुये उद्धारकर्त्ता से प्रार्थना की। यीशु के लिये भी एक सुखद अनुभव रहा होगा। जिसे दुनिया नहीं बदल पाई, उसने जीवन के अंतिम क्षणों में यीशु को, उससे सीधा कुछ कहे बिना ही अपना जीवन दे दिया।
शायद उसने जीवन में कभी भी ऐसी प्रार्थना नहीं की होगी । शायद यह पहली या अंतिम प्रार्थना रही होगी और वह भी सुन •ली गई। जहां सही जीवन है वहां सच्ची आशा है, जहां सच्ची आशा है वहां सच्ची प्रार्थना के लिये पर्याप्त अवसर है।
• उसकी प्रार्थना में हम विश्वास देखते है..... उसने अपने पापों को अंगीकार किया (पद 23:41) उसके पश्चाताप में हम यीशु के प्रति एक सच्चे विश्वास को देखते हैं । वह उसे प्रभु मान लेता है तथा यह भी कि उसका राज्य आयेगा और वह राजा होगा। इस मृत्यु के दिन, एक डाकू द्वारा अंतिम पलों में यह घटना एक महान बात थी। उसे विश्वास था कि उसे आगे जीवन मिलेगा। क्रूस की सजा भले उस समय के लोगों के लिये अपमान जनक थी परन्तु उसके लिये क्रूस जीवनदायी
बन गया।
• उसकी प्रार्थना में हम नम्रता पाते हैं। एक डाकू का इस तरह कठोरता से नम्रता में आ जाना एक आश्चर्यकर्म है। उसका अपना कोई नहीं था। वह क्रूस पर एक दम अकेला था.. पर उस समय उस दिन यह अनोखा परिवर्तन उसे नई दिशा दे गया। "मुझे उस समय स्मरण करना जब तू राजा बनके आयेगा। मेरे लिये अपने मन में और राज्य में एक स्थान रखना।" डाकू का परिवर्तन उसे प्रभु से कैसे प्रार्थना करना और क्या प्रार्थना करना है, इसकी शिक्षा दे गया। ऐसा लगता है मानो उस समय के दुख और पीड़ा से बढ़कर वह आने वाले राज्य में अपनी जगह के लिये सोच चुका था।
जब जीवन बदलता है तो ऐसा ही होता है। जहां विश्वास जन्म लेकर मजबूत होता है, वहीं व्यवहार में नम्रता आती है, शब्द बदल जाते है, होठों में आत्मिक प्रार्थना आ जाती है। उसकी इस प्रार्थना में यीशु उसका मसीहा बनके उस पर राज्य कर रहा है। वह प्रार्थना, उसका उत्तर कब लेके आयेगी..... शायद उसने सोचा भी नहीं था ।
परमेश्वर का अनुग्रह
उसने देखा यीशु के कांपते होठों से आवाज आई और यह उसकी प्रार्थना का उत्तर था "मैं तुमसे सच सच कहता हूं कि तू आज ही मेरे साथ स्वर्गलोक में होगा।"
• सर्वप्रथम यीशु के उत्तर में हम यह पाते हैं कि उसने ये निर्णय दे दिया कि वह न्यायी है, राजा है, उसने डाकू के लिये एक स्थान निश्चित कर दिया। एक डाकू श्राप देते हुये चला गया, दूसरा डाकू प्रार्थना के उत्तर के रूप में आशीष पा गया। यहां हम देखते है कि पापी कितना बड़ा से बड़ा क्यों न हो यदि वह अपने पापों को मान ले, पश्चाताप करे, तो स्वर्ग में उसके लिये जगह है।
• यीशु की मृत्यु ने स्वर्ग के राज्य को सारे पश्चातापी विश्वासियों के लिये खोल दिया.... उन सबके लिये जिन्होने अपने जीवन काल में प्रभु को अपने राज्य में स्मरण करने के लिये प्रार्थना की ।
• उसकी मृत्यु इस बात का प्रमाण देती है कि मरने के बाद वह स्वर्ग को गया। पिता अपने पुत्र से प्रसन्न हुआ ।
• समस्त विश्वासियों के लिये उसका यही संदेश है कि सारे पश्चातापी विश्वासी मरने के बाद उसके साथ होंगे। उसने मृत्यु की कीमत पर विश्वासियों के भविष्य के आनन्द को मोल ले लिया है। किसी भी विश्वासी की प्रभु से की गई स्मरण करने की प्रार्थना, उत्तर में महान आनन्द लेके आयेगी क्योंकि विश्वासी मृत्यु के बाद हमेशा से उसके साथ होंगे।
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