Chhotaanagpur Diocese Ka Itihas Hindi men

छो० डायसिस का संक्षिप्त इतिहास


छोटानागपुर डायसिस की स्थापना मार्च 23, 1890 में हुई। लेकिन उस ऐतिहासिक दिन से पहले की परिस्थितियों की झलक जरूरी है। पास्टर योहनेस गोस्सनर एक अद्भुत ईश्वर भक्त और प्रभु के लिए ज्वलंनता से भरा सुसमाचारवाहक थे। वह जर्मनी के बर्लिन शहर से अन्य धर्मावलबियों को सुसमाचार सुनाने के लिये भूमंडल के कई भागों में धर्म सेवकों को भेजा करते थे। इस सिलसिले में उन्होंने सन् 1844 ई० के 31 दिसम्बर को बर्लिन नगर से चार मिशनरियों को याने ए० शत्स, अ० ब्रन्त, फ्रेद्रिक बाच्छ और इ० थ० जानके साहिबों को हिन्दुस्तान भेजा। यद्यपि वे अन्य स्थान जाने के लिये नियुक्त थे फिर भी परमेश्वर ने यह उचित समझा कि वे कलकत्ता से राँची आए, फलस्वरूप सन् 1845 की 2 नवम्बर को उनका पदार्पण रांची में हुआ। उन दिनों यात्रा क्लेश से भरी हुई थी। वे तीन उपायों से प्रभु की सेवा में लग गये थे। (1) स्कूल में शिक्षा देने के द्वारा (2) बीमारों को दवा देने के द्वारा (3) ईश्वर का वचन प्रचारने के द्वारा ।

1850 ई० के शुरू में चार धर्मखोजियों अर्थात् (1) हेथा कोटा का नवीन पोड़े (2) चिताकुनी का केशो (3) चिताकुनि का बन्धु और (4) करणडा का घुरन ने मिशनरियों के पास आकर कहा "हम खुद यीशु को देखना चाहते हैं"। उन्हें पवित्रात्मा की ऐसी प्रेरणा मिली कि पहला वयस्क बपतिस्मा उसी साल की 9वीं जून 1850 में विधिवत् सम्पन्न हुआ। यह भी जानना जरूरी है कि उन दिनों में राँची में नियुक्त आयुक्त-उपायुक्त आदि सरकारी अफसर प्रभु के लिये समर्पित थे जिसके कारण से मिशनरियों को अपनी सेवा में काफी सहूलियत मिली। अगला अठारह वर्ष याने 1868 तक "गोस्सनर मिशन" का काम सुचारू रूप से चला। इस दरमियानं पश्चिम से पर्याप्त संख्या में धर्मसेवक आये और अत्याचार और कष्ट सहने के बावजूद भी मसीहियों की संख्या अधिक-अधिक बढ़ती गई। दुर्भाग्यवश कतिपय कारणों से 1868 में मिशन में फूट पड़ी, परन्तु बाद परिस्थितियों में सुधार आया, एवं कलीसिया का काम बढ़ता गया।


छोटानागपुर में एंग्लिकन कलीसिया का आगमन


एंग्लिकन कलीसिया के प्रथम मिशनरी के रूप में मान्यवर पुरोहित जे० सी० हिक्टली 1869 ई० के 29वीं जून को सपरिवार रांची पहुँचे। अपने दोनों और एक बेटा और बेटी। अगला 21 वर्षों तक एंग्लिकन कलीसिया को संगठित, विकसित और मजबूत करने के लिये उन्होंने दिन-रात मेहनत की। इसी बीच सब से पहले आए पुरोहित बाच्छ साहिब समेत काफी संख्या में लोगों ने एंग्लिकन कलीसिया की सदस्यता को ग्रहण किया, जिनमें मान्यवर विलहेल्म लूथर दाऊद सिंह भी थे। कलकत्ता से आए बिशप मिलमैन साहिब ने उसे क्रमशः डीकन और प्रीस्ट के पद पर अभिषेक किया। इस प्रकार छोटानागपुर की एंग्लिकन कलीसिया का प्रथम देशीय पुरोहित बनने का सौभाग्य दाऊद सिंह को प्राप्त हुआ। एक दशक में मंडली संख्या दस हजार छः सौ हो गई। धर्म विद्यालय 1870 में ही खोला गया जहां पुरोहित बनने के लिये सेवकों को प्रशिक्षण दिया जाता था। उसी साल में सन्त पौल कथीड्रल की नींव डाली गई एवं 1873 में संस्कार किया गया। डायसिस के निर्माण तक कलकत्ता से महामान्यवर बिशप मिलमैन छः बार और महामान्यवर बिशप जोनसन सात बार अलग-अलग अवसरों में यहां की एंग्लिकन कलीसिया के मार्गदर्शन के लिये आना-जाना किये हैं। कलकत्ता डायसिस से छोटानागपुर को अलग करने के लिये विलायत की संसद की मंजूरी आवश्यक थी। इस प्रकार सारी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद छोटानागपुर के प्रथम बिशप होने के लिए मान्यवर जे० सी० हिव्टली को ही चुना गया एवं 23 मार्च 1890 में बिशप के पद पर उनका संस्कार हुआ।

विलायत की कलीसिया से स्वतंत्र होना

डायसिस के प्रथम बिशप के सिंहावरोहण के साथ हम विश्व व्यापी एंग्लिकन महा सहभागिता में शामिल हो गए थे और भारत के सभी एंग्लिकन डायोसीसों का संचालन एवं विधि-विधान चर्च ऑफ इंग्लैंड के अनुरूप होता था। लेकिन 1928 में पारित एक नियम के अंतर्गत हिन्द-बर्मा- सिलोन की एंग्लिकन कलीसिया को एक प्रान्त में शामिल किया गया और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पाकिस्तान को भी मिलाकर चर्च ऑफ इन्डिया, पाकिस्तान, बर्मा और सिलोन के रूप में हमें मान्यता मिली और इस प्रकार हमने चर्च ऑफ इंग्लैंड से स्वतंत्र होकर विश्वव्यापी एंग्लिकन महासहभागिता का एक प्रान्त के रूप में अपने को पाया। यह सम्बन्ध और सहभागिता उत्तर-भारत की कलीसिया के जन्म तक बरकरार रहा।


डायसीस की स्थापना के दो साल याने 1892 में प्रथम बिशप के अनुरोध पर 'डब्लिन यूनिवर्सिटी मिशन' के धर्मसेवक रांची में आए और उस समय से उन्होंने हजारीबाग को अपना केन्द्र बनाया। इस प्रकार पास्तरीय-शैक्षणीय और स्वास्थ्य क्षेत्रों में डी० यू० एम० मिशन ने महत्वपूर्ण योगदान डायसिस के सर्वांगीण विकास के लिये दिया है। अभी भी उनकी मदद जारी है।

डी० यू० एम० मिशन के आगमन के कुछ साल बाद याने 1909 में पलामू क्षेत्र में सेवा अदा करने "ब्रिटिश चर्चेज ऑफ क्राइस्ट मिशन" का पदापर्ण हुआ। काफी संख्या में मिशनरी कठिन परिस्थितियों में सुसमाचार प्रचार एवं समाजी सेवा में लगे रहते थे। 1969 में सम्पन्न बी०सी०सी० की आम सभा में यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया गया कि छोटानागपुर डायसिस के माध्यम से सी० एन० आई० में शामिल हो, तब डायसिस के तत्कालीन बिशप दिलबर हंस महोदय द्वारा बी० सी० सी० के कई पुरोहितों को विधिवत् रूप से डायसिस में ग्रहण किया गया।


छोटानागपुर डायसिस का उत्तर भारत की कलीसिया में विलयन 

1947 में दक्षिण भारत की कलीसिया (सी० एस० आई०) के उद्घाटन के पश्चात् 1951 में उत्तर भारत में कलीसियाओं की एकता के लिये एक योजना बनाई गई। उक्त योजना की चौथी और अन्तिम संशोधन 1965 में प्रकाशित की गई। जिसके अनुसार उत्तर भारत की छः अलग-अलग कलीसिया ने एक होने के लिये अपनी-अपनी सम्मति दी, फलस्वरूप 29 नवम्बर 1970 में उत्तर भारत की कलीसिया का जन्म हुआ, जिसमें छोटानागपुर डायसिस भी शामिल है। दिनांक 17 जुलाई 2020 से परिस्थितिवश अलगाव की स्थिति बन गई थी। लेकिन परमेश्वर की अनुग्रह और डायसीस के भाई-बहनों की प्रार्थना का प्रत्युत्तर प्राप्त हुआ और दिनांक 19 नवम्बर 2020 से छोटानागपुर डायसीस उत्तर भारत की कलीसिया का पुनः अंग बन गया। सी० एन० आई० के उद्घाटन के बाद अब 50 साल बीत चुका है एवं छोटानागपुर डायसीस की आयु अब 134 वर्ष की हो गई है। हम परमेश्वर को धन्यवाद दें समस्त मिशनरियों, बिशपों, पुरोहितों, प्रचारकों, डायसीस के कार्यकर्त्ताओं, शिक्षक-शिक्षिकाओं, ले-अगुवों एवं डायसीस के समस्त माता-पिता, भाई-बहनों की जिन्होंने अपने दर्शन, अथक परिश्रम, बलिदान और निःस्वार्थ सेवा के द्वारा छोटानागपुर डायसीस के माध्यम से परमेश्वर के राज्य के विस्तार में अपना बहुमूल्य योगदान दिया है।